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PATNI KA SACHCHA PREM

 इस कविता में एक दिलचस्प पल का चित्रण है, जिसमें प्रेम और विरह की भावना सहजता से प्रकट होती है। मुख्य पात्र की आँखों में विरह की आग बढ़ रही है, और उसका मीत कहीं दूर गया है। दरअसल, वह आशा कर रहा है कि मीत उससे मिलेगा और उसका इंतजार खत्म होगा।

इसके साथ ही, कविता में सुंदरता का चित्रण किया गया है, जैसे कि "थी शाम की कुछ यूँ बेताबी" और "तितली की तरह जियरा थिरके"। कविता में एक रहस्यमय और मंगलमय वातावरण है, जो पाठकों को अधिक सोचने और सुनने पर प्रेरित करता है।

आखिरी में, कविता में अद्वितीय रस और आत्मा का सांग किया गया है, जिससे पाठकों को एक ऊँची अनुभूति होती है। यह कविता एक सुंदर अनुभव का चित्रण करती है और कविता के सारांश में एक आकर्षक संदेश छिपा होता है कि प्रेम और उम्मीद के बिना जीवन विल्कुल भी संभव नहीं है।

कविता का सार एक पत्नी अपने पति को शाम के समय घर आने का बेताबी से इंतजार कर रही है।

                       

रसते पे थी आँखें विछी-विछी,

लगी पूरी लगन थी वहीं कहीं,

मन था बैचैन व्याकुल पलकें,

थी शाम की कुछ यूँ बेताबी,

घर द्वार और जगत के सुख,

नहीं शीतलता थी और कहीं,

सब रिस्ते नाते फीके थे,

था फीका आँगन चारदीवारी,

नहीं शब्द किसी के मन भावें,

नहीं कोई मूरत सुख लाबै,

अखियाँ तो लगीं हैं द्वारे पर,

सब राह निहारे बन मूरत,

अखियाँ भारी थीं मौन बनी,

तितली की तरह जियरा थिरके,

मेरा मीत कहाँ पर देर भई,

ओ कन्हाँ सुन अखियाँ भींगी,

कुछ खबर मेरे प्रीतम की दे,

सारी डोरी टूटी धीरज,

एक पहर हुआ देरी में कहाँ,

सब जन छुये अपनी देहलीज,

पर मीत मेरा ना घर आया,

क्या बात हुई कारण देरी,

ना कोई खबर सुध ले आया,

सब रंगहीन दुनियाँ लागे,

स्वामी बिन मुझको ना चैन आबे,

दो दसक बीत गये ना हुआ कभी,

कुछ आज अनिष्ठ ना हो जाबै,

हे मुरली धर प्रताप तेरा,

सब जग में करे है उजियारा,

एक आस मुझे भरतार की है,

मिलवादे बस एक ही पल में,

ये बदन मेरा यूँ थर-थर है,

होठों पर छाई थिरकन है,

भोर भये निकले घर से,

एक पहर की देरी बहुतायत,

सब नजर में भावै न कोई,

बस पिया मिलन की आवक हो,

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