चला-चल ओ रे माँझी: आत्मविश्वास और संघर्ष की अनूठी यात्रा
यह कविता जीवन के संघर्षों और आत्मविश्वास की अनिवार्यता पर केंद्रित है। माँझी (नाविक) को जीवन की यात्रा में रुकने के बजाय आगे बढ़ने का संदेश दिया गया है। कविता में मायूशी (निराशा) को जीतने, आत्मनिर्भर बनने और जीवन को भरपूर जीने की प्रेरणा दी गई है। इसमें बताया गया है कि असली साथी हमारे अंदर ही होता है जो हमारी हर सांस पर पहरा देता है। जिंदगी के हसीन पलों का आनंद लेने की सलाह देते हुए, यह कविता व्यक्ति को अपने शौक और सपनों को पालने के लिए प्रेरित करती है, क्योंकि समय के साथ जीवन आगे बढ़ता जाता है और कल पर किसी का बस नहीं होता।
चला-चल ओ रे माँझी रुकना तेरे हक में नहीं।
आज जी ले जी भर के कल तेरे वस में नहीं।।
मायूशी को जीत ले सब अस्त्र शस्त्र हैं तेरे पास,
तेरे सिवाय कोई और नहींं इस रण में तेरे साथ,
अकेले ही लडना हैं तुझे ये लडाई खुद से ही,
किसी को अपने साथ करले ये तेरे वस में नहीं,
साथी तो बैठा है तेरे ही अंदर पुकारने के इंतजार में,
जन्मों से निगेवानी है उसी की तेरे ऊपर,
तू सोता है वो पहरे पर है, स्वांस-स्वास पर,
महशूस कर शीतल होकर, फिर हारना तेर वस में नहीं,
जिंदगी बडी हसीन हैं ऐ दोस्त हम सब की,
खुद से ज्यादा अजीज कोई और बेईमानी हैं खुद की,
पाल ले जरा कुछ शौक अपने भी जिंदगी में,
जब साथ छोडेगी तेरा, रोकना तेरे वस में नहीं,
उठ फिर जीत ले खुद को बँधा समा फिर तेरा हैं,
बँटवारा नहींं किसी और का ये जहाँँ सिर्फ तेरा है,
ठसक फिर वही दिखला हक से इस जमाने को,
फिर देख खुशियों का सागर तेरा, जिसे रोकना तेरे वस में नहीं,
लगा ले आग सी मन मेंं, सभी सुर और संगीत तेरे हैं
जरा सा ध्यान दे खुद पर, नजारे हर तरफ मैजूद,
चला-चल ओ रे माँझी रुकना तेरे हक में नहीं।
आज जीले जी भर के कल तेरे वस में नहीं।।
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